राजनितिक सोच :

बिहार में राजनीति की बात करना आपको बहुत मुश्किल में डाल सकती है। लेकिन अगर आप यह नहीं करेंगे तो यह राजनीति बाक़ी सबों को समस्याग्रस्त बनाए रखेगी। अभिजात्य राजनीतिक वर्ग अपने फ़ायदे के लिए यथास्थिति बनाए रखने में सफल रहा है। राजनीति आज वैसी सभी चीज़ों का प्रतिनिधित्व करती है जिनसे एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति दूर रहना चाहेगा, और मैं कोई अपवाद नहीं हूँ। लेकिन यह वह राजनीति नहीं है जैसा इसे होना था। राजनीति भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़ और धोखाधड़ी का कोई पर्याय नहीं है बल्कि सैद्धांतिक रूप से इसका मतलब सक्षम तरीक़े से उपलब्ध संसाधनों का पुनर्वितरण है। राजनेताओं ने हमारी राजनीति की समझ को इतना तोड़-मरोड़ दिया है कि यह विश्वास करना असम्भव हो गया है कि इससे कुछ भला हो सकता है या समाज के लिए बोलने वाले किसी व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है – ‘यह हो ही नहीं सकता और ज़रूर इसका कुछ निहित स्वार्थ है’। नहीं? यह सच है कि राजनेताओं पर विश्वास न करने के लिए हमें गुनहगार नहीं माना जा सकता क्योंकि स्वतंत्रता के बाद उन सबों ने हमें असफल ही साबित किया है।

लेकिन हम पर हाशिए पर बने रहने और सिर्फ़ अपने ड्रॉइंग रूम में या हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर राजनीति की सिर्फ़ बातें करते रहने का इल्ज़ाम ज़रूर है। हममें से ज़्यादातर तो वोट भी नहीं करते। जब मैं बड़ा हो रहा था तो मुझे वोट करने के बारे में सिखाने की ज़रूरत नहीं समझा गया क्योंकि यह कोई प्राथमिकता नहीं था। और यही कारण है कि नेता लोग हमसे जीतते रहे हैं। हम पीड़ित लोगों से सहानुभूति रखते हैं और सोचते हैं कि हमें वैसी स्थिति में न जीना पड़े। लेकिन सही मायनों में हम वैसी स्थिति में हमेशा बने हुए हैं। हमारी मानसिक बनावट ऐसी हो गई है कि हम नज़र चुराते हैं, या मान चुके हैं कि चीज़ें ऐसी ही रहेंगी या कि हम इसके लिए कुछ नहीं कर सकते। आज जब मैं यह लिख रहा हूँ मिथिला में बाढ़ की समस्या है और यह विकराल है। कई लोगों की जानें भी गई। हम सिर्फ़ प्रकृति की कृपा पर ही बचे हुए हैं कि नदी में पानी कम हो जाए, न कि सरकार के प्रयासों से।

मिथिला हर साल बाढ़ में डूबता है। आज जो हम भुगत रहे हैं, कोसी क्षेत्र के हमारे भाई-बहन साल-दर-साल वो झेलते रहे हैं। अगर मिथिला के पीड़ित जिलों के निवासियों ने सरकार को तब से प्रश्न किया होता तो शायद आज हमें यह नहीं देखना पड़ता। साफ़ है कि हम तभी तक सुरक्षित हैं जब तक हमारी बारी नहीं आ जाती। हमारी वर्तमान सरकार और ‘हम जनता’ दोनों के पास पंद्रह साल थे इसके बारे में कुछ करने के लिए। यह एक लम्बा समय था जिसमें कुछ हो न सका। लेकिन अब अपने भविष्य और भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा करना नैतिक रूप से अनिवार्य हो गया है। मैं (और मैं मान रहा हूँ कि आप भी) मिथिला को अपने जीवन-काल में ही विकसित देखना चाहता हूँ और मिथिला के लिए देश में वो सम्मान पाना चाहता हूँ जिसका वो हक़दार है।

मैंने अपनी उच्च शिक्षा द इंस्टिट्यूट ऑफ़ चार्टर्ड अकाउंटेंट ऑफ़ इंडिया से प्राप्त किया जहाँ मैंने व्यापार, वृत्त और अर्थशास्त्र की विभिन्न विषय-वस्तुओं को पढ़ा और महसूस किया कि पूरी दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है। पॉलिसी के निर्माण के लिए उपरोक्त विषयों की योग्यता एक अहम भूमिका रखती है ताकि पॉलिसी साक्ष्य और गहन विश्लेषण पर आधारित हो। दुनिया भर की सरकारें पॉलिसी के असर को उसे लागू करने से पहले और बाद में गहनता से अध्ययन करती हैं क्योंकि पब्लिक और पब्लिक के पैसे दोनों का बहुत महत्व है और इसलिए दूसरी जगहों पर पब्लिक भी यह सुनिश्चित करती है कि सरकारें ऐसा करें। पुनर्वितरण (रीडिस्ट्रिब्यूशन) किसी भी पब्लिक पॉलिसी के केंद्र में होती है। बिहार की मुख्य समस्या फ़ंड की नहीं है बल्कि फ़ंड के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और अपने लोगों को ख़ुश करने की रही है। हमारे पास सक्षम संस्थाओं तथा आधारभूत संरचनाओं का अभाव रहा है और निर्णय राजनीतिक वर्ग की मनमर्ज़ी से किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान सरकार एक दिन जगी और उसने म्यूज़ीयम बनाने की सोची और बना भी डाला। वह पैसा जिसे तत्काल किफ़ायती आवास, प्राथमिक शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं या कृषि आधारित उद्योगों के लिए उपयोग किया जा सकता था, उसे एक बिल्डिंग बनाने के लिए ख़र्च किया जाना क्या एक असंवेदनशील सौदा नहीं कहा जाएगा..? और ऐसा करके भी सरकार बच निकलती है क्योंकि वास्तव में कोई उनके कार्यकलाप पर पूछने वाला ही नहीं है (विपक्ष तो और चौपट है)। बिहार के राजनेताओं को साक्ष्य-आधारित पॉलिसी बनाने का ज्ञान ही नहीं है। उनके लिए राजनीति व्यक्तिगत हमलों, अप्रासंगिक भाषणों और यथास्थिति बनाए रखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मतलब कि लोगों को बेरोज़गार, अशिक्षित और ग़रीब बनाए रखा जाए ताकि वे बारंबार एक ही वादे कर के या ऐसे मुद्दे उछाल कर चुनाव जीतते रहें जिनसे हमारी परेशान ज़िंदगी का कोई सरोकार न हो। ग़रीबी हटाना हर राजनीतिक दल के एजेंडे में पिछले 75 सालों से रहा है। वे अपनी बेमतलब की भाषण कला से हमारा मनोरंजन करते हैं और हम उन्हें ऐसा करने देते रहे हैं। लेकिन उनका काम हमारा मनोरंजन करना नहीं है। फिर इससे हमें क्या राहत मिलती है..? भारत के अधिकतर राज्य अब पॉलिसी निर्माण के उच्चतर स्तर पर पहुँच गए हैं। निस्सन्देह उनकी अपनी समस्याएँ हैं, लेकिन उन्होंने हमारी जैसी समस्याओं का दशकों पहले समाधान कर लिया है। दूसरी तरफ़, हम अभी तक व्यक्ति की उन बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित हैं जो जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक होती हैं। एक मैथिल के रूप में ऐसा महसूस करना असफलता का बोध कराता है। इस बात के बावजूद कि हम या आप मिथिला, बिहार  या भारत के बाहर व्यक्तिगत रूप से ख़ूब सफल हों, एक मैथिल के रूप में हम सभी असफल हैं। और हम इस ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते।

यह बात रोचक है कि बिहार का राजनीतिक वर्ग बिना मुद्दों की बारीकी समझे या उन्हें सुलझाने की समझ रखे ग़रीबी, न्याय, सुशासन और विकास जैसे शब्दों को अपने भाषणों में उछालता रहा है। पुराने राजनेताओं के कारण विकास का हमारा मापदंड इतना कम रहा है कि सरकार अगर नहीं के बराबर भी कुछ करती है, तो हमने ख़ुश रहना सीख लिया है। हमने वर्तमान सरकार को प्रश्न करना बंद कर दिया है और ख़ुद को किसी तरह समझा लिया है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। बिहार की वर्तमान दशा को कोई अनजान या असहाय व्यक्ति ही बर्दाश्त कर सकता है। आप जहाँ भी क़दम रखें वहाँ अराजकता ही है। मंत्री और राजनेता न सिर्फ़ अक्षम हैं बल्कि नैतिक रूप से भ्रष्ट भी हैं। मुज़फ़्फ़रपुर में सैकड़ों बच्चों की मृत्यु और मिथिला की विनाशकारी बाढ़ के बाद भी सरकार में इतना दुस्साहस था कि उन्होंने इस नारे के साथ राजनीतिक अभियान शुरू किया कि “ठीके है” (सब कुछ बढ़िया है)। यह अस्वीकार्य दुस्साहस इस मज़बूत विश्वास से आता है कि अधिकतर पीड़ित लोगों के पास बोलने के लिए मंच नहीं है या जो लोग सरकार को प्रश्न कर सकते हैं उन्हें राजनीति में रूचि नहीं है – वे वोट ही नहीं करेंगे और चुनाव लड़ने का तो सवाल ही नहीं है। सच में, वे ग़लत भी तो नहीं सोच रहे न! वैसे अधिकतर लोग जिन्हें जब पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया जाता है और जिनके पास बोलने का कोई मंच नहीं होता, दूसरे लोग इससे मुँह चुरा लेते हैं। और इसी लिए यह इस ‘क्यों’ का जवाब है कि अब समय आ गया है कि घमंड और अन्याय को पराजित करने के लिए अनसुनी आवाज़ का प्रतिनिधित्व हो।

हम नाराज़ होते हैं जब हमारे अपने देशवासी हमें हमारे नेताओं के कारण एक ख़ास खाँचे में रख कर देखते हैं। हमारी प्रायः यह प्रतिक्रिया होती है कि कोई मिथिला की परवाह नहीं करता। लेकिन मिथिला हमारा  भी तो ज़िम्मेदारी है। हम विकास की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं जब हम इसकी माँग न करें। और कोई मिथिला की परवाह क्यों करे जब हमें न हो। अब समय आ गया है कि हम आत्मनिर्भर प्रगतिशील राज्य बनने की बागडोर अपने हाथों में लें, सिर्फ़ राजनीतिक नारे के लिए नहीं बल्कि सच्चाई में। मिथिलावादी बनने के लिए पहला क़दम है स्वशासन की माँग करना। मिथिला अपराधियों, नालायक़ नेताओं या मुट्ठी भर समृद्ध लोगों के राजनीतिक वर्ग की जागीर नहीं है। यह हमारा भी है, हम टैक्स दाता जो उस राजनीतिक वर्ग के मालिक हैं। वे और उनकी बंगलों, गाड़ियों और बॉडीगार्डों वाली विलासी ज़िंदगी हमारी वजह से है। हमने अपना धन राजनीतिक वर्ग को हमारे लिए काम करने के लिए दिया है, इसलिए अब समय आ गया है कि वे अपनी नालायकी के लिए स्पष्टीकरण दें।

मिथिला के पास विश्व की सबसे उपजाऊ भूमि है, एक नौजवान मेहनती कार्यबल है और इसलिए एक सही पब्लिक पॉलिसी के साथ यह पिछड़ेपन को आसानी से पराजित कर सकता है। तब यह अभी तक क्यों नहीं हो पाया..? तब क्यों यह कार्यबल अभी भी रोज़गार की तलाश में है या अशोभनीय वेतन पर खटने के लिए विवश है..? हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया है कि बदलाव का पहला क़दम है – यथास्थितिवाद को चुनौती देना। यही वह विचारधारा है जिसका मिथिला स्टूडेंट यूनियन प्रतिनिधित्व करता है। अब वह समय है कि हम, MSU सेनानी, एक मज़बूत, सक्षम विपक्ष बन कर सरकार को प्रश्न करें और प्रगति की माँग करें। इस तेज़ी से बदलते देश में हम वहीं नहीं रूक रह सकते जहाँ हम अभी ठहरे हुए हैं। हमने शुरुआत कर दी है। और आप या तो मिथिलावादी हैं या अपने भविष्य के विरूद्ध हैं। तीसरा कोई विकल्प नहीं हैं 

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