सोच और आदर्श :
मिथिला एक पवित्र शब्द हैं, यह वैदिक शब्द है जिसका अर्थ रामायण से लिया जा सकता हैं राजा जनक और माँ सीता का ये जन्मभूमि नेपाल और भारत दो देशों में बसा हुआ हैं जिसमे तत्कालीन 32 जिला इस प्रकार हैं
6 जिला नेपाल
20 जिला बिहार और
6 जिला झारखण्ड
मिथिलावाद से मेरा अभिप्राय है लोक-सम्मति के अनुस्वार होने वाला मिथिला. लोक-सम्मति का निश्चय मिथिला के बालिग लोगो के बड़ी-से-बड़ी संख्या के मत के जरिये हो, फिर वो चाहे स्त्रियाँ हो या पुरुष, इसी मिथिला के हों. वे लोग ऐसे हो जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा मिथिला की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओ की सूचि में अपना नाम लिखवा लिया हो….सच्चा मिथिलावाद थोड़े लोगो के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेनें से नहीं , बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उनका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है. दुसरे शब्दों में, मिथिलावाद जनता में इस बात का ज्ञान उत्पन्न करके प्राप्त किया जा सकता है की सत्ता पर नियंत्रण करने की क्षमता उसमे है.
आखिर मिथिलावाद निर्भर करता है हमारी आंतरिक शक्ति पर, बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों से जूझने की हमारी ताकत पर. सच पूछो तो वह मिथिलावाद, जिसे पाने के लिए अनवरत प्रयत्न और बचाए रखने के लिए सतत जाग्रति होनी चाहिए, ताकि मिथिलावाद कहलाने के लायक हो. जैसा की आपको मालूम है, हमने वचन और कार्य से ये दिखलाने की कोशिश की है कि स्त्री-पुरुषों की के विशाल समूह का राजनितिक मिथिलावाद एक-एक व्यक्ति के अलग-अलग मिथिलावाद से कहीं ज्यादा अच्छी चीज है, और इसीलिए उसे पाना का तरीका वही है जो एक-एक आदमी के आत्म-मिथिलावाद या आत्म-संयम का है.
मिथिलावाद का अर्थ है मिथिला को हर क्षेत्र में समृद्ध करने के लिए निरंतर लड़ते रहना, फिर चाहे वह लड़ाई राज्य सरकार से हो या केंद्र सरकार से. यदि मिथिलावाद हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुहं ताकना आरम्भ कर दें, तो वह मिथिलावाद-सरकार किसी काम का नहीं होगी.
हमारा मिथिलावाद तो हमारे सभ्यता को अक्षुण रखना है. हम बहुत कुछ लिखना चाहते हैं, परन्तु वे तमाम मिथिला की स्लेट पर लिखी जनि चाहिए. हाँ, हम दुसरे राज्य से भी उधार लेंगे , पर तभी जब की हम उसे अच्छे सूद के साथ वापस कर सकें.
मिथिलावाद की रक्षा केवल वहीँ हो सकता हैं, जहाँ मिथिलावासियों की ज्यादा बड़ी संख्या में ऐसे मिथिलाप्रेमी हो जिनके लिए दुसरे सब चीजों से – अपने निजी लाभ से भी – मिथिला की भलाई का ज्यादा महत्व हो. मिथिलावाद का अर्थ है मिथिला की बहुसंख्यक जनता का शासन. जाहिर है की जहाँ बहुसंख्यक जनता नितिभ्रष्ट हो या स्वार्थी हो, वहां उसकी सरकार अराजकता की ही स्थिति उत्पन्न कर सकती है, दूसरा कुछ नहीं.
हमारे सपनो के मिथिलावाद में जाति या धर्म के भेदों को कोई स्थान नहीं हो सकता. उस पर शिक्षितों का एकाधिकार नहीं होगा. वह मिथिलावाद सबके लिए-सबके, कल्याण के लिए होगा. सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले,लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले हजारो-लाखों मेहनतकश मजदूर भी जरुर आते है.
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मिथिलावाद तो चंदन-टिका वाला समाज का यानि ब्रह्मन का ही राज्य होगा. इस मान्यता से ज्यादा बड़ी कोई दूसरी गलती नहीं हो सकती. यदि यह सही सिद्ध हो तो अपने लिए मै ऐसा कह सकता हूँ कि मैं उसे मिथिलावाद मानने से इंकार कर दूंगा और अपनी साडी शक्ति लगाकर उसका विरोध करूँगा. हमारे लिए मिथिलावाद का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य है
“अगर मिथिलावाद का अर्थ हमें सभ्य बनाना और हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध तथा मजबूत बनाना न हो, तो वह किसी कीमत का नहीं होगा. हमारी सभ्यता का मूल तत्व ही यह है कि हम अपने सब कामों में, फिर वे निजी हों या सार्वजानिक, निति के पालन को सर्वोच्च स्थान देते हैं”
पूर्ण मिथिलावाद….कहने में आशय यह है कि वह जितना किसी राजा के लिए होगा उतना ही किसान के लिए, जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए, जितना हिन्दुओ के लिए होगा उतना मुसलमानों के लिए. उसमे जाति-पांति, धर्म अथवा दर्जे के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा.
पूर्ण मिथिलावाद की हमारी कल्पना दुसरे क्षेत्रो से कोई सम्बन्ध न रखने वाली स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि स्वस्थ और गंभीर किस्म की स्वतंत्रता की है. हमारा मिथिला प्रेम उग्र तो है, पर वह वर्जनशील नहीं हैं, उसमे किसी दुसरे क्षेत्र या व्यक्ति को नाकुसन पहुँचाने की भावना नहीं हैं. क़ानूनी सिधांत असल में नैतिक सिधांत ही हैं. ‘अपनी सम्पति का उपयोग इस तरह करो की पडोसी की सम्पति को कोई हानि न पहुंचे.’—यह क़ानूनी सिद्धांत एक सनातन सत्य को प्रकट करता है और उसमे मेरा पूर्ण विश्वास है.
यह सब इस बात पर निर्भर करता हैं की पूर्ण मिथिलावाद में हमारा आशय क्या है और उसके द्वारा हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं. यदि हमारा उदेश्य यह है की जनता में जाग्रति होनी चाहिए, उसे अपने सच्चे हित का ज्ञान होना चाहिए और सारी दुनिया का विरोध का सामना करके भी उस हित का सिद्धि के लिए कोशिश करने की योग्यता होनी चाहिए, और यदि पूर्ण मिथिलावाद के द्वारा हम भितिरी और बाहरी आक्रमण से रक्षा और जनता की आर्थिक स्थिति में उतरोत्तर सुधार चाहते हों, तो हम अपना लक्ष्य राजनितिक सत्ता के बिना ही, सत्ता जिनके हाथ में हो उन पर अपना सीधा प्रभाव डालकर, सिद्ध करा सकते है.
मिथिलावाद के हमारी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलत-फहमी नहीं होनी चाहिए. उसका अर्थ भारतीय नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण राजनितिक और भौगौलिक स्वंत्रता नहीं हैं बल्कि पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता है. इसके दो दुसरे उदेश्य भी है; एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उदेश्य और दुसरे छोर पर इसी कक्षा का दूसरा उदेश्य है धर्म. यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है. उसमे हिन्दू धर्म, इस्लाम, इसाई धर्म आदि सब का समावेश होता है, लेकिन मिथिलावाद इन सबसे ऊँचा है. इसे हम मिथिलावाद का सम-चतुर्भुज कह सकते है; यदि इसका एक भी कोण विषम हुआ तो उसका रूप विकृत हो जायेगा.
हमारी कल्पना का मिथिलावाद तभी आएगा जब हमारे मन में यह बात अछि तरह बैठ जाये की हमें अपना मिथिलावाद सत्य और अहिंसा के सुद्ध साधनों द्वारा ही प्राप्त करना है, उन्ही के द्वारा हमें इसका संचालन करना है और उन्ही के द्वारा हमें उसे स्थिर रखना हैं. सच्ची लोकसत्ता या जनता का मिथिलावाद कभी भी असत्यमय और हिंसक साधनों से नहीं आ सकता. कारण स्पष्ट और सीधा है ; यदि असत्य्मय और हिंसक उपायों का प्रयोग किया गया, तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा की सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके ख़त्म क्र दिया जायेगा. ऐसी स्थिति में भारतीय संविधान द्वार दिया गया वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती. वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रगट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा आधारित मिथिलावाद में ही मिल सकता है.
“अहिंसा पर आधारित मिथिलावाद में लोगो को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो तो कोई बात नहीं, लेकिन उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञान अवश्य होना चाहिए. हरेक कर्तव्य के साथ उसकी तौल का अधिकार जुड़ा हुआ होता ही है, और सच्चे अधिकार वे ही हैं जो अपने कर्तव्यों का योग्य पालन करके प्राप्त किया गया हो. इसीलिए मिथिलावाद अहिंसा पर आधारित होना चाहिए”
अहिंसा पर आधारित मिथिलावाद में कोई शत्रु नहीं होगा, सारी जनता की भलाई का सामान्य उदेश्य करने में हरेक अपना अभीष्ट योग देगा, सब लिख-पढ़ सकते हैं और उनका ज्ञान दिन-दिन बढ़ता जायेगा. बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ ऐसी व्यवस्था की जाएगी की कोई कंगाल नहीं हो और मजदूरी करना चाहने वाले को काम अवश्य मिल जाये उसे नौकरी के लिए अन्य राज्य पर निर्भर नहीं होना पड़े. ऐसी शासन व्यवस्था में जुआ, शराबखोरी और दुराचार को ये वर्ग-विद्वेष को कोई स्थान नहीं होगा. आमिर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धि पूर्वक उपयोगी कार्य में करेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा मानव कल्याण और रोजगार, सिक्षा और स्वस्थ का अवसर उत्पन्न हो सके.
अहिंसक मिथिलावाद में न्यायपूर्ण अधिकारों का किसी के भी द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं हो सकता और इसी प्रकार किसी को कोई अन्यायपूर्ण अधिकार नहीं हो सकते. सुसंगठित मिथिला में किसी दुसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छिना जाना असंभव होना चाहिए और ऐसा हो जाये तो अपहर्ता को अपदस्थ करने के लिए हिंसा का आश्रय लेना कहीं से गलत नहीं होना चाहिए.
हमारे लिए मिथिलाप्रेम और देशप्रेम में कोई अंतर नहीं है; दोनों एक ही हैं. हम मिथिलाप्रेमी हैं, क्योकि हम देशप्रेमी हैं. हमरा मिथिलाप्रेम वर्जनशील नहीं हैं. हम मिथिला के हित या सेवा के लिए बिहार या भारत की हनी नहीं करेंगे. जीवन की हमारी योजना में साम्राज्यवाद का कोई स्थान नहीं है. मिथिलाप्रेमी की जीवन निति देशप्रेमी के जीवन-निति से भिन्न नहीं है. और यदि कोई मिथिलाप्रेमी उतना ही उग्र देशप्रेमी नहीं है, तो कहना चाहिए की उसके मिथिलाप्रेम में उतनी न्यूनता है. वैयक्तिक आचरण और राजनितिक आचरण में कोई विरोध नहीं है; सदाचार का नियम दोनों को लागु होता है.
जिसतरह देशप्रेम हमें यह सिखलाता हैं कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए, उसी प्रकार किसी क्षेत्र के आर्थिक स्वतंत्र इसीलिए होना चाहिए की वह आवश्यकता होने पर देश के कल्याण के लिए अपना बलिदान डे सके. अतः मिथिला की हमारी कल्पना यह है कि हमारा मिथिला इसलिए आर्थिक स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा ही मिथिला देश की रक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करे. जिसमे जतिद्वेस और धर्म्द्वेस का कोई स्थान नहीं है. हमारा कामना है की हमारा मिथिलाप्रेम ऐसा ही हो.
हम मिथिला का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि सारा देश इससे लाभ उठा सके. हम यह नहीं चाहते की मिथिला का उत्थान दुसरे राज्यों के नाश की नींव पर हो.
एक मैथिल मिथिलावादी हुए बिना राष्ट्रवादी नहीं हो सकता. राष्ट्रवाद तभी संभव है जब मिथिलावाद सिद्ध हो चुके—यानि मिथिला के विभिन्न संगठन और निवासी ये प्राण क्र ले और हिल-मिलकर एकतापुर्वक काम करने का सामर्थ्य प्राप्त कर ले. मिथिलावाद में कोई बुरे नहीं है; बुरे तो उस संकुचितता, स्वर्थ्वृति और बहिश्कार्वृति में है, जो मौजूदा मिथिला के मानस में जहर की तरह मिली हुई है. हरेक राज्य दुसरे को हानि करके अपना लाभ करना चाहता है और उसके नाश पर अपना निर्माण करना चाहता हैं. भारत में मिथिलावाद ने एक नया मार्ग लिया है. वह अपना संगठन या अपने लिए आत्म-प्रकाशन का पूरा अवकाश विशाल भारत-वर्ष के लाभ के लिए, उसकी सेवा के लिए ही चाहता है.
भगवान ने हमें मिथिला में जन्म दिया है और इस तरह मेरा भाग्य इस क्षेत्र की प्रजा के भाग्य के साथ बांध दिया है, अतः यदि मैं उसकी सेवा न करूँ तो मैं अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूंगा. यदि मैं यह नहीं जानता की उसके सेवा कैसे की जाये, तो मैं मानव-जाति की सेवा करना सिख ही नहीं सकता. और यदि अपने मिथिला के सेवा करते हुए देश को कोई हानि नहीं पहुंचता, तो मेरे पथभ्रष्ट होने की कोई सम्भावना नहीं हैं.
मेरा मिथिलाप्रेम कोई बहिश्कारशील वास्तु नहीं बल्कि अतिशय व्यापक वास्तु हैं और मैं उस मिथिलाप्रेम को वर्ज्य मानता हूँ जो भारत को तकलीफ देकर या उनका अवमानना करके मिथिला को उठाना चाहता हैं. मिथिलाप्रेम की मेरी कल्पना यह हैं की वह सदैव, बिना किसी अपवाद के हरेक स्थिति में, देशवासी के विशालतम हित के साथ सुसंगत होना चाहिए. यदि ऐसा न हो तो मिथिलाप्रेम की कोई कीमत नहीं. इतना ही नहीं, मेरे धर्म और उस धर्म से ही प्रसुत मेरे मिथिलाप्रेम के दायरे को सिमित कर देना सच्चा मिथिलाप्रेम का स्वरुप कभी नहीं हो सकता और इसे होना भी नहीं चाहिए.
हमारा मिथिलावाद दुसरे राज्यों व देश के लिए कभी संकट का कारण नहीं हो सकता. क्योंकि जिस प्रकार हम किसी को अपना शोसन नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे. मिथिल्वाद के द्वारा हम सभी देशवासी का सेवा करेंगे.
सार्वजानिक जीवन के लगभग 10 वर्ष के अनुभव के पश्चात् आज मैं यह कह सकता हूँ कि अपने मिथिला की सेवा देश के सेवा से असंगत नहीं हैं—इस सिधांत में मेरा विश्वाश बढ़ा ही हैं. यह एक श्रेष्ट सिधांत हैं. इस सिधांत को स्वीकार करके ही मिथिला के मजुदा कठिनाइयों को आसन किया जा सकता हैं और विभिन्न राज्यों में जो परस्परिक द्वेषभाव नजर आता हैं उसे रोका जा सकता हैं.